संकट मोचन विनती - वृन्दावनदास - sankat mochan vinti

 कविश्री वृन्दावनदास


हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||

मालिक हो दो जहान के जिनराज आपही |

एबो-हुनर हमारा कुछ तुमसे छिपा नहीं ||

बेजान में गुनाह मुझसे बन गया सही |

ककरी के चोर को कटार मारिये नहीं ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१||


दु:ख-दर्द दिल का आपसे जिसने कहा सही |

मुश्किल कहर से बहर किया है भुजा गही ||

जस वेद औ’ पुरान में प्रमान है यही |

आनंदकंद श्री जिनेंद्र देव है तुही ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२||


हाथी पे चढ़ी जाती थी सुलोचना सती |

गंगा में ग्राह ने गही गजराज की गती ।।

उस वक्त में पुकार किया था तुम्हें सती |

भय टार के उबार लिया हे कृपापती ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||३||


पावक-प्रचंड कुंड में उमंड जब रहा |

सीता से शपथ लेने को तब राम ने कहा ||

तुम ध्यान धार जानकी पग धारती तहाँ |

तत्काल ही सर-स्वच्छ हुआ कमल लहलहा ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||४||


जब चीर द्रोपदी का दु:शासन ने था गहा |

सब ही सभा के लोग थे कहते हहा-हहा ||

उस वक्त भीर-पीर में तुमने करी सहा |

परदा ढँका सती का सुजस जगत् में रहा ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||५||


श्रीपाल को सागर-विषे जब सेठ गिराया |

उनकी रमा से रमने को वो बेहया आया ||

उस वक्त के संकट में सती तुम को जो ध्याया |

दु:ख-दंद-फंद मेट के आंनद बढ़ाया ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||६||


हरिषेण की माता को जहाँ सौत सताया |

रथ जैन का तेरा चले पीछे यों बताया ||

उस वक्त के अनशन में सती तुम को जो ध्याया |

चक्रेश हो सुत उसके ने रथ जैन का चलाया ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||7||


सम्यक्त्व-शुद्ध शीलवती चंदना सती |

जिसके नगीच लगती थी जाहिर रती-रती ||

बेडी़ में पड़ी थी तुम्हें जब ध्यावती हती |

तब वीर धीर ने हरी दु:ख-दंद की गती ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||८||


जब अंजना-सती को हुआ गर्भ उजारा |

तब सास ने कलंक लगा घर से निकारा ||

वन-वर्ग के उपसर्ग में तब तुमको चितारा |

प्रभु-भक्त व्यक्त जानि के भय देव निवारा ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||९||


सोमा से कहा जो तूँ सती शील विशाला |

तो कुंभ तें निकाल भला नाग जु काला ||

उस वक्त तुम्हें ध्याय के सति हाथ जब डाला |

तत्काल ही वह नाग हुआ फूल की माला ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१०||


जब कुष्ठ-रोग था हुआ श्रीपाल राज को |

मैना सती तब आपकी पूजा इलाज को ||

तत्काल ही सुंदर किया श्रीपालराज को |

वह राजरोग भाग गया मुक्त राज को ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||११||


जब सेठ सुदर्शन को मृषा-दोष लगाया |

रानी के कहे भूप ने सूली पे चढ़ाया ||

उस वक्त तुम्हें सेठ ने निज-ध्यान में ध्याया |

सूली से उतार उसको सिंहासन पे बिठाया ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१२||


जब सेठ सु धन्ना जी को वापी में गिराया |

ऊपर से दुष्ट फिर उसे वह मारने आया ||

उस वक्त तुम्हें सेठ ने दिल अपने में ध्याया |

तत्काल ही जंजाल से तब उसको बचाया ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१३||


इक सेठ के घर में किया दारिद्र ने डेरा |

भोजन का ठिकाना भी न था साँझ-सबेरा ||

उस वक्त तुम्हें सेठ ने जब ध्यान में घेरा |

घर उस के में तब कर दिया लक्ष्मी का बसेरा ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१४||


बलि वाद में मुनिराज सों जब पार न पाया |

तब रात को तलवार ले शठ मारने आया ||

मुनिराज ने निज-ध्यान में मन लीन लगाया |

उस वक्त हो प्रत्यक्ष तहाँ देव बचाया ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१५||


जब राम ने हनुमंत को गढ़-लंक पठाया |

सीता की खबर लेने को सह-सैन्य सिधाया ||

मग बीच दो मुनिराज की लख आग में काया |

झट वारि-मूसलधार से उपसर्ग मिटाया ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१६||


जिननाथ ही को माथ नवाता था उदारा |

घेरे में पड़ा था वह वज्रकर्ण विचारा ||

उस वक्त तुम्हें प्रेम से संकट में चितारा |

प्रभु वीर ने सब दु:ख तहाँ तुरत निवारा ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१७||


रणपाल कुँवर के पड़ी थी पाँव में बेड़ी |

उस वक्त तुम्हें ध्यान में ध्याया था सबेरी ||

तत्काल ही सुकुमाल की सब झड़ पड़ी बेड़ी |

तुम राजकुँवर की सभी दु:ख-दंद निवेरी ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१८||


जब सेठ के नंदन को डसा नाग जु कारा |

उस वक्त तुम्हें पीर में धर धीर पुकारा। |

तत्काल ही उस बाल का विष भूरि उतारा |

वह जाग उठा सोके मानो सेज सकारा ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१९||


मुनि मानतुंग को दर्इ जब भूप ने पीरा |

ताले में किया बंद भरी लोह-जंजीरा ||

मुनि-र्इश ने आदीश की थुति की है गंभीरा |

चक्रेश्वरी तब आनि के झट दूर की पीरा ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२०||


शिवकोटि ने हठ था किया समंतभद्र-सों |

शिव-पिंडि की वंदन करो शंको अभद्र-सों ||

उस वक्त ‘स्वयंभू’ रचा गुरु भाव-भद्र-सों |

जिन-चंद्र की प्रतिमा तहाँ प्रगटी सुभद्र सों ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२१||


तोते ने तुम्हें आनि के फल आम चढ़ाया |

मेंढक ले चला फूल भरा भक्ति का भाया ||

तुम दोनों को अभिराम-स्वर्गधाम बसाया |

हम आप से दातार को लख आज ही पाया ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२२||


कपि-श्वान-सिंह-नेवला-अज-बैल बिचारे |

तिर्यंच जिन्हें रंच न था बोध चितारे ||

इत्यादि को सुर-धाम दे शिवधाम में धारे |

हम आप से दातार को प्रभु आज निहारे ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२३||


तुम ही अनंत-जंतु का भय-भीर निवारा |

वेदो-पुराण में गुरु-गणधर ने उचारा ||

हम आपकी शरनागती में आके पुकारा |

तुम हो प्रत्यक्ष-कल्पवृक्ष इच्छिताकारा ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२४||


प्रभु भक्त व्यक्त भक्त जक्त मुक्ति के दानी |

आनंदकंद-वृंद को हो मुक्त के दानी ||

मोहि दीन जान दीनबंधु पातक भानी |

संसार विषम-खार तार अंतर-जामी ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२५||


करुणानिधान बान को अब क्यों न निहारो |

दानी अनंतदान के दाता हो सँभारो ||

वृषचंद-नंद ‘वृंद’ का उपसर्ग निवारो |

संसार विषम-खार से प्रभु पार उतारो ||

हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |

यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२६||

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