प्रमुख जैनाचार्य
1 . अंतिम श्रतकेवली आचार्य भद्रबाहु स्वामी
दक्षिण भारत में जैनसंघ के प्रभाव में उल्लेखनीय वृद्धि का श्रेय अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु को है । उत्तरभारत में दीर्घकालीन अकाल के समय तत्कालीन सम्राट चन्द्रगुप्त ने युवा पत्र बिम्बसार को राज्यभार सौंपकर भद्रबाहु से मुनिदीक्षा ली और वे गुरु - शिष्य संघ सहित दक्षिण में आये । मैसर प्रदेश के श्रवणबेलगोला को इन्हीं के निवास से । तीर्थक्षेत्र होने का गौरव प्राप्त हुआ । यहाँ के चन्द्रगिरि पर्वत पर गुफा अब भी पवित्र स्थान मानी जाती है , जहाँ । आचार्य भद्रबाहु ने अपने अंतिम दिन बिताये । दक्षिण के साहित्य में भी भद्रबाहु की स्मृति सादर सुरक्षित है । आचार्य भद्रबाहु का समय ईसा पूर्व 327 - 227 माना जाता है ।
2 . आचार्य पूज्यपाद स्वामी
भारतीय परम्परा में जो लब्ध प्रतिष्ठित तत्त्वदृष्टा शास्त्रकार हुए हैं उनमें आचार्य पूज्यपाद का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है । इन्हें प्रतिभा और विद्वत्ता दोनों का समान रूप से वरदान प्राप्त था । आपका जन्म अनुमानतः पाँचवी शती के मध्यकाल में कर्नाटक देश के कोले नामक ग्राम में हुआ था । आपके पिता माधवभट्ट और माता का नाम श्रीदेवी था । जाति से आप ब्राह्मण थे । ज्योतिषियों ने बालक को त्रिलोकपूज्य बतलाया था । इस कारण इनका नाम पूज्यपाद रखा गया । आचार्य पूज्यपाद ने विवाह न कर बचपन में ही जैनधर्म स्वीकार कर लिया । उनको एक दिन बगीचे में एक साँप के मुंह में फंसे हुए मेंढ़क को देखकर वैराग्य हो गया और उन्होंने जिनदीक्षा धारण कर ली । इनका गुरु के द्वारा दिया हुआ दीक्षा नाम देवनंदि था । बुद्धि की प्रखरता के कारण इन्हें जिनेन्द्रबुद्धि भी कहते थे । देवों के द्वारा इनके चरण युगल पूजे गये थे इसलिए वे पूज्यपाद , इस नाम से भी लोक में प्रख्यात थे । दीक्षोपरान्त पूज्यपाद मुनि बहुत समय तक योगाभ्यास करते रहे । उन्होंने अपने जीवन काल में गगनगामी लेप के प्रभाव से कई बार विदेहक्षेत्र की यात्रा भी की थी । एक बार तीर्थयात्रा करते समय जंगल के मार्ग में उनकी दष्टि तिमिराच्छन्न हो गयी थी , जिसे उन्होंने शान्त्यष्टक का निर्माण कर दूर किया था । किन्तु इस घटना का उनके ऊपर ऐसा प्रभाव पड़ा जिससे उन्होंने तीर्थयात्रा से लौटकर समाधि ले ली । एक किंवदंति प्राप्त होती है कि जिस जल से उनके चरण धोये जाते थे उसके स्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता था । उनके चरण स्पर्श से पवित्र हुई धूलि में भी पत्थर से सोना बनाने की क्षमता थी ।
साहित्य - प्रमुख परिचय इस प्रकार है : ( 1 ) सर्वार्थसिद्धि ( 2 ) समाधितंत्र ( 3 ) इष्टोपदेश ( 4 ) दशभक्ति ( 5 ) जैनेन्द्रव्याकरण ( 6 ) मग्धबोध व्याकरण ( 7 ) शब्दावतार ( 8 ) शान्त्यष्टक ( 9 ) सारसंग्रह ( 10 ) वैद्यसार ( 11 ) जन्माभिषेक ( 12 ) सिद्धिप्रियस्तोत्र ( 13 ) छन्दशास्त्र3 . आचार्य अकलंक स्वामी
मान्यखेट नगर के राजा शुभतुंग के मंत्री का नाम पुरुषोत्तम था । उनका पत्नी का नाम पद्मावती था । इनके अकलंक और निकलंक नामक दो पुत्र थे । एक बार अष्टाह्निका पर्व के समय नगर में ही पधारे हुए रविगुप्त मुनि से माता - पिता के साथ ही दोनों पुत्रों ने भी ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया । युवा होने पर माता - पिता के द्वारा विवाह प्रस्ताव में अपनी असहमति प्रकट की । दोनों पुत्रों ने बाद में जीवनपर्यन्त ब्रह्मचर्यव्रत के पालन की दृढ़ता प्रदर्शित की । इनके समय में चारों दिशाओं में बौद्धधर्म का सर्वत्र प्रचार था , अकलंक - निकलंक के हृदय में विद्याध्ययन की उत्कृष्ट अभिलाषा थी किन्तु विद्याध्ययन के साधन आज की तरह सरल नहीं थे । उनके सामने बहुत सी कठिनाइयाँ थी , उन्होंने कष्टों की परवाह न करते हुए अपनी ज्ञान पिपासा को तृप्त करने के लिए महाबोधि विशाल बौद्ध विद्यालय में अध्ययन करने के लिए प्रवेश ले लिया । वे प्रतिभाशाली थे । अतः अल्प समय में ही न्याय और तर्क शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान् बन गये । एक दिन गुरुजी द्वारा सप्तभंगी सिद्धान्त समझाया जा रहा था । वे उन्हें समझा नहीं पा रहे थे . जब तक वे अन्य गुरुजी से विषय पूछने गये । इतने में अकलंक ने उस पाठ को शुद्ध कर दिया , इस कारण गुरुजी को उन पर जैन होने का सन्देह होने लगा । बाद में जब दोनों भाई जैन घोषित हो गये तो इन्हें कारागृह में बन्द कर दिया गया । रात्रि में दोनों भाई जेल से भाग निकले । राजा ने उनको पकड़ने के लिये उनके पीछे सिपाहियों को लगा दिया , परन्तु अपने प्राणों की चिंता न करते हुए , मात्र धर्म की श्रेष्ठ प्रभावना के उद्देश्य से अकलंक तो निकट के तालाब में कूद गये , किन्तु निकलंक , धोबी के लड़के के साथ प्राण रक्षा के लिए भागने का प्रयत्न करने लगे । सिपाहियों ने दोनों को मार ' डाला । इस घटना के बाद अकलंक वहाँ से बाहर आकर दीक्षा धारण कर निर्भय होकर , नगर - नगर , गाँव - गाँव जैनधर्म की प्रभावना करने लगे । कलिंग देश के रत्नसंचयपुर के राजा का नाम हिमशीतल था । उनकी रानी मदनसुन्दरी जिनधर्म की भक्त । थी । उसने उत्साह के साथ अपना जैनरथ निकालना चाहा परन्तु अन्य कारणों से ऐसा नहीं हुआ , तब रानी के कहने से एवं धर्म की रक्षार्थ अकलंक स्वामी का एक माह तक बौद्धों से वाद - विवाद होता रहा । बौद्ध साधुओं के उत्तरों । पर अकलंक को आश्चर्य होने लगा । एक दिन स्वप्न में वास्तविकता को जानकर परदे के पीछे छिपी तारादेवी का । भेद खला तब उन्होंने परदे को खोलकर घड़े को फोड़ दिया । घड़ा फूटते ही तारादेवी भाग निकली और अकलंक देव । विजयी हुए और जैन रथ धूमधाम से निकाला गया । इस प्रकार अकलंकस्वामी ने अपने जीवन काल में जैनधर्म की अत्यधिक प्रभावना की थी । आपका समय ईसा की सातवीं शताब्दी माना जाता है । ।
रचनाएँ - आचार्य अकलंकस्वामी जैनन्याय के व्यवस्थापक थे और दर्शनशास्त्र के असाधारण पंडित थे । उन्होंने ( 1 ) लघीयस्त्रय ( 2 ) न्यायविनिश्चय , ( 3 ) सिद्धिविनिश्चय , ( 4 ) अष्टशती , (5) प्रमाणसंग्रह , ( 6 ) तत्त्वार्थ राजवार्तिक ( 7 ) स्वरूप संबोधन , ( 8 ) अकलंक स्तोत्र आदि महान् ग्रन्थों की रचना की ।
4 . आचार्य वीरसेन स्वामी
आचार्य वीरसेन स्वामी का समय ईसा की 9 वीं शताब्दी ( सन् 770 - 827 ) है । आपके गुरु का नाम एलाचार्य था । आचार्य वीरसेन स्वामी प्रसाद गण , समाहार शक्ति , तर्क , न्याय शैली , पाठकशैली , सर्जक शैली , निष्कर्ष शैली आदि के धनी थे । सिद्धान्त , छन्द , ज्योतिष , व्याकरण आदि विषयों में निपुण थे । आपने श्री षट्खण्डागम की धवला । की रचना वाटग्राम में की थी । जिसका विस्तार 72000 श्लोक प्रमाण है । यह अधिकतर प्राकृत में है । कहीं - कहीं संस्कृत भी अंश हैं । आपने कषायप्राभत पर जयधवला टीका एक तिहाई कार्य कर दिया था । तभी आपका स्वर्गवास हो । गया । इसके बाद उनके शिष्य जिनसेन ने टीका पूर्ण की । आपको कलिकाल सर्वज्ञ के रूप में स्मरण किया जाता है । ।
5 . आचार्य जिनसेन स्वामी प्रथम
आचार्य जिनसेन ने बाल्यकाल में जिनदीक्षा धारण कर ली थी । कठोर ब्रह्मचर्य की साधना द्वारा वाग्देवी की । आराधना में तत्पर रहे । आपका शरीर तो कृश था । लेकिन तपश्चरण , ज्ञानाराधन एवं कुशाग्र बुद्धि के कारण इनका अन्तरंग व्यक्तित्व बहुत ही भव्य था । आप ज्ञान और अध्यात्म के अवतार थे । अन्य अनेक आचार्यों ने आपको सरस्वती का लाडला , अपने युग का महान विद्वान आचार्य माना है । । आपका समय ईसा सन् 748 - 818 है । आपकी रचना हरिवंश पुराण है ।
6 आचार्य ज्ञानसागर जी
राजस्थान की भूमि पर सीकर जिले के राणोली ग्राम के निवासी दिगम्बर जैन खंडेलवाल छाबडा के कल । सेठ सुखदेव जी के पुत्र श्री चतुर्भुज जी की धर्मपलि धृतादेवी की कोख से एक अभूतपूर्व प्रतिभा के धनी बालक का जन्म सन् 1891 ई . में हुआ । आपकी देह के गौरवर्ण को देखकर माँ ने बचपन में आपका नाम भूरामल रख दिया । प्रारम्भिक शिक्षा गांव के विद्यालय में अर्जित कर उच्च शिक्षा के लिये बनारस गये और पूर्ण निष्ठा के साथ विद्याध्ययन करके संस्कृत और जैन सिद्धान्तों की उच्च शिक्षा प्राप्त की एवं स्याद्वाद महाविद्यालय बनारस से शास्त्री । की परीक्षा पास की । आप पं . भूरामल जी के नाम से विख्यात हये तथा बनारस में ही आपने जैनाचार्यों द्वारा लिखित न्याय , व्याकरण , साहित्य , सिद्धान्त एवं अध्यात्म विषयों के अनेक ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया । सन् 1947 में अजमेर नगर में मुनि श्री वीरसागर महाराज से आपने ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया और आत्मकल्याण हेतु 54 वर्ष की आयु में गृह त्याग कर दिया । 60 वर्ष की आयु में आचार्य श्री वीरसागर जी ने क्षुल्लक दीक्षा देकर ज्ञानभूषण नाम रखा और सन् 1957 में ऐलक दीक्षा प्रदान की तथा सन् 1959 में आचार्य श्रीशिवसागरजी महाराज ने खानियां , जयपुर में मुनि दीक्षा देकर ज्ञानसागर के नाम से विभूषित किया । नसीराबाद में 7 फरवरी 1969 को सकल दिगम्बर जैन समाज तथा चतुर्विध संघ के द्वारा आपको आचार्य पद से विभूषित किया गया । अपने जीवन के अंतिम वर्ष में आचार्य पद की उपाधि को अपने ही शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी को 22 नवम्बर 1972 को सौंपकर स्वयं समाधि साधना में लीन हो गये और 1 जून 1973 को अपनी साधना की गरिमा का गौरव पुँज आचार्य विद्यासागर के रूप में इस राष्ट्र को सौंपकर , उस प्रभालोक में प्रस्थान कर गये , जहाँ जाने के लिये इस सृष्टि के समस्त प्राणी लालायित रहते हैं ।
अभ्यास प्रश्न
1 . दक्षिण भारत में जैनसंघ के प्रभावना का श्रेय किसको है ?
2 . उत्तरभारत में दीर्घकालीन अकाल के समय तत्कालीन राजा कौन थे ?
3 . पूज्यपाद स्वामी का संक्षिप्त परिचय दीजिए ।
4 . पूज्यपाद स्वामी के अन्य नाम बताइए ।
5 . पूज्यपाद स्वामी के माता - पिता का नाम बताइए ।
6 . पूज्यपाद स्वामी की सभी रचनाओं के नाम बताइए ।
7 . पूज्यपाद स्वामी की यात्रा की एक घटना बताइए ।
8 . दोनों भाईयों ने विवाह से इन्कार क्यों किया ?
9 . अकलंक देव का बौद्धों से शास्त्रार्थ क्यों हआ ?
10 . निकलंक क्यों मारे गये ?
11 . अकलंक देव ने किन - किन ग्रन्थों की रचना की ?
12 . आचार्य वीरसेन स्वामी का समय क्या था ?
13 . आचार्य वीरसेन स्वामी ने कौन सी टीका की ?
14 , आचार्य वीरसेन स्वामी के गुरु का क्या नाम था ?
15 . आचार्य जिनसेन स्वामी का समय क्या था ?
16 . पं . भुरामल जी के पिता का क्या नाम था ?
17 . आचार्य ज्ञानसागर जी ने सल्लेखना कब धारण की ?