Jinvani Stuti - जिनवाणी स्तुति

जिनवाणी स्तुति 

मिथ्यातम नासवे को , ज्ञान के प्रकाशवे को । 
आपा पर भासवे को , भानु सी बखानी है । 
छहों द्रव्य जानवे को , बन्ध - विधि भानवे को । 
स्वपर पिछानवे को , परम प्रमानी है । 
अनुभव बतायवे को , जीव के जतायवे को । 
काहू न सतायवे को , भव्य उर आनी है । 
जहाँ - तहाँ तारवे को , पार के उतारवे को । 
सुख विस्तारवे को , ये ही जिनवाणी है । 
हे जिनवाणी भारती , तोहि जपूँ दिन रैन । 
जो तेरी शरणा गहै , सो पावे सुख चैन । 
जिनवाणी की यह थुति , अल्पबुद्धि परमान । '
 पन्नालाल ' विनती करै , दे माता मोहि ज्ञान । 
जा वाणी के ज्ञानतें , सूझे लोकालोक । 
सो वानी मस्तक चढ़ो , सदा देत हों धोक । 
भावार्थ - हे जिनवाणी माता । तुम मिथ्यात्वरूपी अन्धकार का नाश करने के लिए तथा आत्मा और पर पदार्थों का सही ज्ञान कराने के लिए सूर्य के समान हो । ।
छहों द्रव्यों का स्वरूप जानने में , कर्मों की बन्ध पद्धति का ज्ञान कराने में निज और पर की सच्ची पहचान कराने में तुम्हारी प्रमाणिकता असंदिग्ध है ।
अतः हे जिनवाणी , भव्य जीवों ने आपको अपने हृदय में धारण कर रखा है क्योंकि आपके द्वारा आत्मानुभव का ज्ञान होता है , आत्म स्वरूप का परिचय होता है . अहिंसा रूप धर्म का ज्ञान होता है ।
एक मात्र जिनवाणी ही संसार से पार उतारने में समर्थ है एवं सच्चे सुख का रास्ता बताने वाली है । हे जिनवाणी माता ! मैं तेरी ही आराधना सारे दिन - रात करता हूँ क्योंकि जो व्यक्ति तेरी शरण में जाता है । वही सच्चा अतीन्द्रिय आनन्द पाता है ।
जिस वीतराग - वाणी का ज्ञान हो जाने पर सारी दुनियां का सही जान हो जाता है उस वाणी को मैं मस्तक नवाकर सदा नमस्कार करता हूँ ।



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