प्र . 21 पूजन का स्वरूप क्या है ?
उत्तर : जल , चंदन आदि अष्ट द्रव्य से , भाव सहित जिनेन्द्र भगवान के गणों का स्मरण तथा उनके समान गुणों को प्राप्त करने की क्रिया करना पूजन कहलाती है ।
प्र . 22 पूजा किसे कहते हैं ?
उत्तर : जल , चंदन , अक्षत , पुष्प , नैवेद्य , दीप , धूप , फल आदि अष्ट द्रव्य चढ़ाकर भगवान का भावपूर्वक गुणानुवाद करना पूजा कहलाती है ।
प्र . 23 पूजा का प्रयोजन क्या है ?
उत्तर : जिस तरह शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिये उत्तम भोजन की आवश्यकता होती है । मस्तिष्क को स्वस्थ्य रखने के लिए उत्तम साहित्य की आवश्यकता होती है , ठीक उसी तरह गृहस्थ जीवन को स्वस्थ्य रखने के लिए जिनपूजा की आवश्यकता होती है । जिनपूजा से हम प्रभु के निकट रहते हैं , उतने समय तक मन , वचन , काय की अशुभ प्रवृत्ति नहीं होती है जिससे अशुभ कर्म का बंध नहीं होता है और भगवान के गुणों का स्मरण हमारे जीवन को उच्चता की ओर ले जाने में सहायक होता है ।
प्र . १४ पूजा का शाब्दिक अर्थ क्या है ?
उत्तरः संस्कृत में पूजा शब्द जिस धातु से बना है वह - पू - जिसके का अर्थ एक अर्थ - पवित होना , अर्थात् पवित होने की जो जननी है वह पूजा है या पवित्रता को जो जनक है वह पूजा है या पवित्रता को जो जन्म दे , वह पूजा है । पूका दूसरा अर्थ है - मांजना , साफकरना । फूज्य के माध्यम से स्वयं के विकारी परिणामों , भावों को निर्मल करना जिनेन्द्र वाणी द्वारा कर्म मल को निष्कासित करना , परिमार्जित करना अर्थात् विकारों को हटाना या देश के साथ राग - द्वेष से मलिन आत्मा को मौजना पूजा है । पूका तीसरा अर्थ है फटकना । त्याग और संयम के सूप द्वारा व्यर्थ - पदार्थों को फटकना एवं सारतत्व को साफ करके ग्रहण करना । जिस प्रकार फटक कर दाल व छिलका अलग किया जाता है ।
प्र . १५ पूजा किसकी करना चाहिए ?
उत्तरः पूजा के पहले पूज्य को जानकारी , पूज्य की पहिचान एवं पूज्य का ज्ञान आवश्यक है । पूज्य का ज्ञान नहीं तो पूजा का स्वाद नहीं आ सकता । पूज्य की पहिचान के बिना को गई पूजा से कुछ भी उपलब्धियाँ नहीं हो सकती । जैसे रत्न खरीदने के पहले रत्न की जानकारी आवश्यक है , जिससे आप ठगेन जाओ , धोखा न खाओ । आप तो जानते नहीं कि रत्न है या पत्थर । ऐसे आप भगवान की पूजन को गये लेकिन मालूम नहीं , आराध्य कैसा होना चाहिए । उपासना किसकी करना चाहिए । यदि आप सरागी के पास उपासना करने पहुंच गये तो सरागता ही मिलेगी । आचार्यों ने कहा है कि पहले पूज्य को पहिचानो । जब तक पूज्य का ज्ञान नहीं तब तक पूजन नहीं । पूज्य के ज्ञान के पश्चात् पूजन सरल है , जिससे अपने आराध्य के पास पहुंचा जा सकता है ।
प्र . २६ पूज्य कैसा होना चाहिए व पूजन किसकी होनी चाहिए ?
उत्तर : जिसमें कोई दोष नहीं है अर्थात् जो अठारह दोषों से रहित जन्म - मरण क्षुधा , तृषा आदि दोषों से रहित हैं वे ही पूज्य हैं , वे ही हमारे उपास्य हैं । जन्म भी एक दोष है और मरण भी दोष है । जो सर्वज्ञ हैं , अर्थात् संपूर्ण पदार्थों का एक साथ जानने वाले हैं , केवलज्ञानी हैं , हितोपदेशी हैं , बिना स्वार्थ के उपदेश देते हैं , ऐसे तीन विशेषणों से युक्त ही भगवान हो सकते । वीतरागता , सर्वज्ञता एवं हितोपदेशता ये तीन महागुण जिसमें हैं , वह देवातथा ऐसे अरिहंत देव के द्वारा कथित शास्त्र हैं एवं २८ मूल गुणों से युक्त । दिगम्बर जैन मुनि जो रत्नत्रय से युक्त हैं ऐसे गरु पूज्य हैं , आराध्य हैं । इन । गुणों से रहित पूज्य नहीं हो सकता परमात्मा पूर्णत : निर्दोष होता है । दोषवान । आराध्य नहीं हो सकता ।
प्र . २७ अष्ट द्रव्य रहित पूजा करने का अधिकारी कौन है ?
उत्तर : जिसने सभी प्रकार के परिग्रह का त्याग कर दिया है , वह मात्र द्रव्य पूजा के बिना भाव पूजा करता है । मुनि आदि भाव पूजा करने के अधिकारी हैं , एवं जो हीनांगी , अधिकांगी , विकलांग , रोगी , तिर्यंच आदि हैं वे भी भाव पूजा करने के अधिकरी हैं ।
प्र . २८ पूजा का पात्रकौन है ?
उत्तरः जो देव - शास्त्र - गुरुका श्रद्धानी व सप्त व्यसनों से मुक्त भक्ष्य अभक्ष्य का विवेकी , सदाचारी , संतोषी , अष्ट मूलगुणों का धारी होवही पूजा करने का पात्र है ।
प्र . २९ पूजा श्रावक का कौन सा आवश्यक कर्तव्य है ?
उत्तरः पूजा श्रावक का प्रथम कर्तव्य है ।
प्र . ३० श्रावक किसे कहते हैं
उत्तरः श्र - श्रद्धावान , व - विवेकवान , क - क्रियावान जो है वही श्रावक कहलाता है । ऐसा आगम में कहा है । प्र . ३१ नित्यमह पूजा किसे कहते है ?
उत्तरः प्रतिदिन अपने घर से अष्ट द्रव्य ले जाकर जिनालय में श्री जिनेन्द्र देव की पूजा करना , सदार्चना करना यह नित्यमह पूजा हैं ।
प्र . ३२ नित्यमह पूजा के कितने भेद हैं ?
उत्तरः चार भेद हैं १ . अपने घर से अष्ट द्रव्य ले जाकर जिनालय में जिनेन्द्र देव की पूजा करना । २ . जिन प्रतिमा व जिन मन्दिर का निर्माण करना । ३ . दान पत्र लिखकर ग्राम , खेत आदि का दान देना । ४ . मुनिराजों को आहार दान देना । उपरोक्त चार भेदों में से सामान्यत : हम केवल प्रतिदिन पहले नम्बर की पजा करते हैं । शेष पूजा भी यथा अवसर यथायोग्य साधनों की उपलब्धि होने पर की जाती है ।
प्र . ३३ द्रव्य पूजा का स्वरूप क्या है ?
उत्तरः अरिहंतादिकों के उद्देश्यों से जल चन्दन अक्षतादि समर्पण करना तथा उत करके खड़े हो जाना , तीन प्रदक्षिणा देना , नमस्कार करना , वचनों से जिनेन्द्र के गुणगान , स्तवन करना भी द्रव्य पूजा है ।
प्र . ३४ आद्रव्य कैसे तैयार की जाती है ?
उत्तरः कुआ , नदी , झरना आदि से शुद्ध पानी को छानकर बिलछानी डाल कर उसे प्रासुक करके चावल , पुष्प , फल आदि को अच्छी तरह तीन बार धो लेना चाहिए । केशर , कपूर , चंदन तीनों को पत्थर पर घिसकर एक कटोरी में एकत्र कर लेना चाहिए । चावल के तीन बराबर भाग करके एक भाग अक्षत सफेद चावल के रूप में एक भाग चंदन से रंग कर पीले करके पुष्प बनाना चाहिए । एक भाग को आष्ट द्रव्य के मिश्रण स्वरूप अर्घ्य बना लेना चाहिए और नैवेद्य , नारियल चूरा की धूप व फल धोकर रखना चाहिए ।
प्र . ३५ पानी किस प्रकारछाना जाना चाहिए ?
उत्तर : कुंआ आदि से पानी बिल्कुल करुणा भाव से धीरे - धीर निकालकर कपड़े का एक छन्ना जो चौबीस इंच चौड़ा और छत्तीस इंच लम्बा हो एवं कपड़े को दोहरा करें जिसमें से सूर्य की किरणें दिखाई न दें उससे पानी छाने फिर सावधानीपूर्वक विलछानी कुएं में डाल दें । व विनाछना हुआजल क्यों नहीं लेना चाहिए ? उत्तर : बिना उने पानी में अनंतानंत सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति होती रहती होना हमारी आँखों से दिखाई नहीं देते । सूक्ष्मदर्शी यंत्रादि की सहायता से देखने पर वैज्ञानिकों ने पाया कि एक बूंद अनछने पानी में ३६ , ४५० जीव पाये जाते हैं । जो हमारे पेट में पहुँचकर विभिन्न प्रकार की शारीरिक बीमारियों को जन्म देते हैं , एवं जीव भक्षण से हिंसा जैसे महापाप का हमें बन्ध होता है , इसलिये पानी छानना आवश्यक है । यदि हम बिना छना जल उपयोग करते हैं तो उसकायिक जीवों की हिंसा का दोष लगेगा इसलिए हमें पूजन में व दैनिक जीवन में छना हुआ जल ही उपयोग में लेना चाहिए ।
प्र . ३७ पानी छानने के बाद क्या पुन : जीव उत्पन्न होते हैं ?
उत्तर : हाँ , पानी को छानने के उपरांत उसमें एक मुहूर्त 48 मिनट के बाद पुन : जीवों की उत्पत्ति हो जाती है ।
प्र . ३८ अष्ट द्रव्य से पूजन करने का क्या औचित्य है ?
उत्तरः अष्ट द्रव्य से पूजन करने का बड़ा महत्त्व है । आठों द्रव्य ही संसार के दुःखों से मुक्त होने की प्रेरणा देते हैं । और गृहस्थ जीवन में दान भावना जागृत o करते हैं । अष्ट द्रव्य चढ़ाने से लोभ या संग्रह की प्रवृति मिटती है , उदार परिणाम सामने आते हैं , सद्भावना बनी रहती है ।
प्र . ३९ आठही द्रव्य क्यों कही , इससे कम या अधिक क्यों नहीं कहीं ?
उत्तरः 8 ( आठ ) का अंक संसार - मोक्ष दोनों का प्रतीक है । संसारी आत्मा का एवं मुक्त आत्मा का प्रतीक है । 8 अंक , आठ कर्मों का संकेत है , सिद्धों का संकेत है आठ कर्मों का अभाव ही 8 गुणों की प्राप्ति है । जब आठ कर्मों की ओर पीठ हो जायेगी , तब 8 गुणों की ओर मुख स्वतः ही हो जायेगा । इसलिए आठ ही द्रव्य कहे हैं ।
प्र . ४० पूजा किस आसन से करना चाहिए व विनय गुण का पालन किस विधि से होता है ।
उत्तरः शास्त्रों में पद्मास पद्मासन तथा खड़गासन मुद्रा में पूजा का विधान है । यदि बैठकर पूजन कर रहे हों तो आह्वानन , स्थापन , सन्निधिकरण एवं विसर्जन खड़े होकर ही विनय पूर्वक करना चाहिए ।
प्र . ४१ द्रव्य चढ़ाने वाली थाली में क्या लिखना चाहिए ?
उत्तरः द्रव्य चढ़ाने वाली थाली में स्वतिक व सिद्ध शिला बनाना चाहिये ।
प्र . ४२ जल , चंदन चढ़ाने वाले कलशों में क्या बनाना चाहिये ?
उत्तर : जल , चंदन चढ़ाने वाले कलशों में भी चारों गतियों से निवृत्त होने के लिये स्वस्तिक बनाना चहिये ।
प्र . ४३ ठोना में क्या बनाना चाहिये ?
उत्तरः ठोना में आठ पांखुड़ी का कमलाकार पुष्प बनाना चाहिए । क्योंकि मनुष्य का हृदय आठ पांखडी रूप कमलाकार होता है , इसलिये अपने हदय कमल में भगवान को विराजमान करने हेतु ठोना में आठ पाँखुडी का कमल पुष्प बनाना चाहिए ।
प्रा . ४४ द्रव्य पूजा कितने प्रकार की होती है ?
उत्तरः द्रव्य पूजा तीन प्रकार की होती है । १ . सचित्त पूजा २ . अचित्त पूजा ३ . मिश्र पूजा ।:
सचित्त पूजा - प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेन्द्र भगवान , गुरु आदि की यथायोग्य पूजा करना सचित्त पूजा कहलाती है । अचित्त पूजा - जिनेन्द्र या तीर्थकर आदि के शरीर की और द्रव्य श्रुत अर्थात् कागज आदि पर लिपिबद्ध शास्व की जो पूजा की जाती है , वह असचित । पूजा कहलाती है ।
मिश्न पूजा - उपरोक्त दोनों मिलाकर जो पूजा की जाती है वह मिश्र पूजा कहलाती है ।
पूजन के उपयोग में आने वाले आठ द्रव्य निम्न हैं
पूजन दव्य १ . जल ( छोटे कलश में ) २ . चन्दन केसर मिला हुआ जल ( छोटे कलश में ) ३ . अक्षत ( सफेद चावल ) ४ . पुष्प ( केसर से रंगे चावल ) ५ नैवेद्य ( गोले की सफेद गिरी ) ६ . दीप ( केसर से रंगी हुई गोले की गिरी ) ७ . धूप ( चंदन का बुरादा / शुद्ध धूप हाथों से बनी हुई । ) ८ . फल ( श्रीफल , बादाम , लौंग , छुआरा , चिरोंजी आदि में से एक दो वस्तुयें । ) अर्थ सरोक्त आठ द्रव्यों का मिश्रण । ) खत हेतु बर्तन १ . थाली - 2 ( एक सामग्री रखने हेतु तथा दूसरी सामग्री चढ़ाने हेतु ) २ . कलश - 2 ( एक में जल और दूसरे में चंदन मिला जल ) ३ . कटोरी - 1 ( जल - चंदन धारा हेतु ) चम्मच छोटी - 2 ( जल व चंदन चढ़ाने हेतु । ) ५ . धूपायन - 1 ( अग्नि में धूप चढ़ाने हेतु ) ठोना - 1 ( आहान , स्थापना , सन्निहिता आहान विसर्जन के प्रतीक पुष्प चढाने । ६ . रकेबी - 1 ( नैवेद्य , फल , अर्घ्य आदि चढ़ाने हेतु । ) ७ .
उत्तर : जल , चंदन आदि अष्ट द्रव्य से , भाव सहित जिनेन्द्र भगवान के गणों का स्मरण तथा उनके समान गुणों को प्राप्त करने की क्रिया करना पूजन कहलाती है ।
प्र . 22 पूजा किसे कहते हैं ?
उत्तर : जल , चंदन , अक्षत , पुष्प , नैवेद्य , दीप , धूप , फल आदि अष्ट द्रव्य चढ़ाकर भगवान का भावपूर्वक गुणानुवाद करना पूजा कहलाती है ।
प्र . 23 पूजा का प्रयोजन क्या है ?
उत्तर : जिस तरह शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिये उत्तम भोजन की आवश्यकता होती है । मस्तिष्क को स्वस्थ्य रखने के लिए उत्तम साहित्य की आवश्यकता होती है , ठीक उसी तरह गृहस्थ जीवन को स्वस्थ्य रखने के लिए जिनपूजा की आवश्यकता होती है । जिनपूजा से हम प्रभु के निकट रहते हैं , उतने समय तक मन , वचन , काय की अशुभ प्रवृत्ति नहीं होती है जिससे अशुभ कर्म का बंध नहीं होता है और भगवान के गुणों का स्मरण हमारे जीवन को उच्चता की ओर ले जाने में सहायक होता है ।
प्र . १४ पूजा का शाब्दिक अर्थ क्या है ?
उत्तरः संस्कृत में पूजा शब्द जिस धातु से बना है वह - पू - जिसके का अर्थ एक अर्थ - पवित होना , अर्थात् पवित होने की जो जननी है वह पूजा है या पवित्रता को जो जनक है वह पूजा है या पवित्रता को जो जन्म दे , वह पूजा है । पूका दूसरा अर्थ है - मांजना , साफकरना । फूज्य के माध्यम से स्वयं के विकारी परिणामों , भावों को निर्मल करना जिनेन्द्र वाणी द्वारा कर्म मल को निष्कासित करना , परिमार्जित करना अर्थात् विकारों को हटाना या देश के साथ राग - द्वेष से मलिन आत्मा को मौजना पूजा है । पूका तीसरा अर्थ है फटकना । त्याग और संयम के सूप द्वारा व्यर्थ - पदार्थों को फटकना एवं सारतत्व को साफ करके ग्रहण करना । जिस प्रकार फटक कर दाल व छिलका अलग किया जाता है ।
प्र . १५ पूजा किसकी करना चाहिए ?
उत्तरः पूजा के पहले पूज्य को जानकारी , पूज्य की पहिचान एवं पूज्य का ज्ञान आवश्यक है । पूज्य का ज्ञान नहीं तो पूजा का स्वाद नहीं आ सकता । पूज्य की पहिचान के बिना को गई पूजा से कुछ भी उपलब्धियाँ नहीं हो सकती । जैसे रत्न खरीदने के पहले रत्न की जानकारी आवश्यक है , जिससे आप ठगेन जाओ , धोखा न खाओ । आप तो जानते नहीं कि रत्न है या पत्थर । ऐसे आप भगवान की पूजन को गये लेकिन मालूम नहीं , आराध्य कैसा होना चाहिए । उपासना किसकी करना चाहिए । यदि आप सरागी के पास उपासना करने पहुंच गये तो सरागता ही मिलेगी । आचार्यों ने कहा है कि पहले पूज्य को पहिचानो । जब तक पूज्य का ज्ञान नहीं तब तक पूजन नहीं । पूज्य के ज्ञान के पश्चात् पूजन सरल है , जिससे अपने आराध्य के पास पहुंचा जा सकता है ।
प्र . २६ पूज्य कैसा होना चाहिए व पूजन किसकी होनी चाहिए ?
उत्तर : जिसमें कोई दोष नहीं है अर्थात् जो अठारह दोषों से रहित जन्म - मरण क्षुधा , तृषा आदि दोषों से रहित हैं वे ही पूज्य हैं , वे ही हमारे उपास्य हैं । जन्म भी एक दोष है और मरण भी दोष है । जो सर्वज्ञ हैं , अर्थात् संपूर्ण पदार्थों का एक साथ जानने वाले हैं , केवलज्ञानी हैं , हितोपदेशी हैं , बिना स्वार्थ के उपदेश देते हैं , ऐसे तीन विशेषणों से युक्त ही भगवान हो सकते । वीतरागता , सर्वज्ञता एवं हितोपदेशता ये तीन महागुण जिसमें हैं , वह देवातथा ऐसे अरिहंत देव के द्वारा कथित शास्त्र हैं एवं २८ मूल गुणों से युक्त । दिगम्बर जैन मुनि जो रत्नत्रय से युक्त हैं ऐसे गरु पूज्य हैं , आराध्य हैं । इन । गुणों से रहित पूज्य नहीं हो सकता परमात्मा पूर्णत : निर्दोष होता है । दोषवान । आराध्य नहीं हो सकता ।
प्र . २७ अष्ट द्रव्य रहित पूजा करने का अधिकारी कौन है ?
उत्तर : जिसने सभी प्रकार के परिग्रह का त्याग कर दिया है , वह मात्र द्रव्य पूजा के बिना भाव पूजा करता है । मुनि आदि भाव पूजा करने के अधिकारी हैं , एवं जो हीनांगी , अधिकांगी , विकलांग , रोगी , तिर्यंच आदि हैं वे भी भाव पूजा करने के अधिकरी हैं ।
प्र . २८ पूजा का पात्रकौन है ?
उत्तरः जो देव - शास्त्र - गुरुका श्रद्धानी व सप्त व्यसनों से मुक्त भक्ष्य अभक्ष्य का विवेकी , सदाचारी , संतोषी , अष्ट मूलगुणों का धारी होवही पूजा करने का पात्र है ।
प्र . २९ पूजा श्रावक का कौन सा आवश्यक कर्तव्य है ?
उत्तरः पूजा श्रावक का प्रथम कर्तव्य है ।
प्र . ३० श्रावक किसे कहते हैं
उत्तरः श्र - श्रद्धावान , व - विवेकवान , क - क्रियावान जो है वही श्रावक कहलाता है । ऐसा आगम में कहा है । प्र . ३१ नित्यमह पूजा किसे कहते है ?
उत्तरः प्रतिदिन अपने घर से अष्ट द्रव्य ले जाकर जिनालय में श्री जिनेन्द्र देव की पूजा करना , सदार्चना करना यह नित्यमह पूजा हैं ।
प्र . ३२ नित्यमह पूजा के कितने भेद हैं ?
उत्तरः चार भेद हैं १ . अपने घर से अष्ट द्रव्य ले जाकर जिनालय में जिनेन्द्र देव की पूजा करना । २ . जिन प्रतिमा व जिन मन्दिर का निर्माण करना । ३ . दान पत्र लिखकर ग्राम , खेत आदि का दान देना । ४ . मुनिराजों को आहार दान देना । उपरोक्त चार भेदों में से सामान्यत : हम केवल प्रतिदिन पहले नम्बर की पजा करते हैं । शेष पूजा भी यथा अवसर यथायोग्य साधनों की उपलब्धि होने पर की जाती है ।
प्र . ३३ द्रव्य पूजा का स्वरूप क्या है ?
उत्तरः अरिहंतादिकों के उद्देश्यों से जल चन्दन अक्षतादि समर्पण करना तथा उत करके खड़े हो जाना , तीन प्रदक्षिणा देना , नमस्कार करना , वचनों से जिनेन्द्र के गुणगान , स्तवन करना भी द्रव्य पूजा है ।
प्र . ३४ आद्रव्य कैसे तैयार की जाती है ?
उत्तरः कुआ , नदी , झरना आदि से शुद्ध पानी को छानकर बिलछानी डाल कर उसे प्रासुक करके चावल , पुष्प , फल आदि को अच्छी तरह तीन बार धो लेना चाहिए । केशर , कपूर , चंदन तीनों को पत्थर पर घिसकर एक कटोरी में एकत्र कर लेना चाहिए । चावल के तीन बराबर भाग करके एक भाग अक्षत सफेद चावल के रूप में एक भाग चंदन से रंग कर पीले करके पुष्प बनाना चाहिए । एक भाग को आष्ट द्रव्य के मिश्रण स्वरूप अर्घ्य बना लेना चाहिए और नैवेद्य , नारियल चूरा की धूप व फल धोकर रखना चाहिए ।
प्र . ३५ पानी किस प्रकारछाना जाना चाहिए ?
उत्तर : कुंआ आदि से पानी बिल्कुल करुणा भाव से धीरे - धीर निकालकर कपड़े का एक छन्ना जो चौबीस इंच चौड़ा और छत्तीस इंच लम्बा हो एवं कपड़े को दोहरा करें जिसमें से सूर्य की किरणें दिखाई न दें उससे पानी छाने फिर सावधानीपूर्वक विलछानी कुएं में डाल दें । व विनाछना हुआजल क्यों नहीं लेना चाहिए ? उत्तर : बिना उने पानी में अनंतानंत सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति होती रहती होना हमारी आँखों से दिखाई नहीं देते । सूक्ष्मदर्शी यंत्रादि की सहायता से देखने पर वैज्ञानिकों ने पाया कि एक बूंद अनछने पानी में ३६ , ४५० जीव पाये जाते हैं । जो हमारे पेट में पहुँचकर विभिन्न प्रकार की शारीरिक बीमारियों को जन्म देते हैं , एवं जीव भक्षण से हिंसा जैसे महापाप का हमें बन्ध होता है , इसलिये पानी छानना आवश्यक है । यदि हम बिना छना जल उपयोग करते हैं तो उसकायिक जीवों की हिंसा का दोष लगेगा इसलिए हमें पूजन में व दैनिक जीवन में छना हुआ जल ही उपयोग में लेना चाहिए ।
प्र . ३७ पानी छानने के बाद क्या पुन : जीव उत्पन्न होते हैं ?
उत्तर : हाँ , पानी को छानने के उपरांत उसमें एक मुहूर्त 48 मिनट के बाद पुन : जीवों की उत्पत्ति हो जाती है ।
प्र . ३८ अष्ट द्रव्य से पूजन करने का क्या औचित्य है ?
उत्तरः अष्ट द्रव्य से पूजन करने का बड़ा महत्त्व है । आठों द्रव्य ही संसार के दुःखों से मुक्त होने की प्रेरणा देते हैं । और गृहस्थ जीवन में दान भावना जागृत o करते हैं । अष्ट द्रव्य चढ़ाने से लोभ या संग्रह की प्रवृति मिटती है , उदार परिणाम सामने आते हैं , सद्भावना बनी रहती है ।
प्र . ३९ आठही द्रव्य क्यों कही , इससे कम या अधिक क्यों नहीं कहीं ?
उत्तरः 8 ( आठ ) का अंक संसार - मोक्ष दोनों का प्रतीक है । संसारी आत्मा का एवं मुक्त आत्मा का प्रतीक है । 8 अंक , आठ कर्मों का संकेत है , सिद्धों का संकेत है आठ कर्मों का अभाव ही 8 गुणों की प्राप्ति है । जब आठ कर्मों की ओर पीठ हो जायेगी , तब 8 गुणों की ओर मुख स्वतः ही हो जायेगा । इसलिए आठ ही द्रव्य कहे हैं ।
प्र . ४० पूजा किस आसन से करना चाहिए व विनय गुण का पालन किस विधि से होता है ।
उत्तरः शास्त्रों में पद्मास पद्मासन तथा खड़गासन मुद्रा में पूजा का विधान है । यदि बैठकर पूजन कर रहे हों तो आह्वानन , स्थापन , सन्निधिकरण एवं विसर्जन खड़े होकर ही विनय पूर्वक करना चाहिए ।
प्र . ४१ द्रव्य चढ़ाने वाली थाली में क्या लिखना चाहिए ?
उत्तरः द्रव्य चढ़ाने वाली थाली में स्वतिक व सिद्ध शिला बनाना चाहिये ।
प्र . ४२ जल , चंदन चढ़ाने वाले कलशों में क्या बनाना चाहिये ?
उत्तर : जल , चंदन चढ़ाने वाले कलशों में भी चारों गतियों से निवृत्त होने के लिये स्वस्तिक बनाना चहिये ।
प्र . ४३ ठोना में क्या बनाना चाहिये ?
उत्तरः ठोना में आठ पांखुड़ी का कमलाकार पुष्प बनाना चाहिए । क्योंकि मनुष्य का हृदय आठ पांखडी रूप कमलाकार होता है , इसलिये अपने हदय कमल में भगवान को विराजमान करने हेतु ठोना में आठ पाँखुडी का कमल पुष्प बनाना चाहिए ।
प्रा . ४४ द्रव्य पूजा कितने प्रकार की होती है ?
उत्तरः द्रव्य पूजा तीन प्रकार की होती है । १ . सचित्त पूजा २ . अचित्त पूजा ३ . मिश्र पूजा ।:
सचित्त पूजा - प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेन्द्र भगवान , गुरु आदि की यथायोग्य पूजा करना सचित्त पूजा कहलाती है । अचित्त पूजा - जिनेन्द्र या तीर्थकर आदि के शरीर की और द्रव्य श्रुत अर्थात् कागज आदि पर लिपिबद्ध शास्व की जो पूजा की जाती है , वह असचित । पूजा कहलाती है ।
मिश्न पूजा - उपरोक्त दोनों मिलाकर जो पूजा की जाती है वह मिश्र पूजा कहलाती है ।
पूजन के उपयोग में आने वाले आठ द्रव्य निम्न हैं
पूजन दव्य १ . जल ( छोटे कलश में ) २ . चन्दन केसर मिला हुआ जल ( छोटे कलश में ) ३ . अक्षत ( सफेद चावल ) ४ . पुष्प ( केसर से रंगे चावल ) ५ नैवेद्य ( गोले की सफेद गिरी ) ६ . दीप ( केसर से रंगी हुई गोले की गिरी ) ७ . धूप ( चंदन का बुरादा / शुद्ध धूप हाथों से बनी हुई । ) ८ . फल ( श्रीफल , बादाम , लौंग , छुआरा , चिरोंजी आदि में से एक दो वस्तुयें । ) अर्थ सरोक्त आठ द्रव्यों का मिश्रण । ) खत हेतु बर्तन १ . थाली - 2 ( एक सामग्री रखने हेतु तथा दूसरी सामग्री चढ़ाने हेतु ) २ . कलश - 2 ( एक में जल और दूसरे में चंदन मिला जल ) ३ . कटोरी - 1 ( जल - चंदन धारा हेतु ) चम्मच छोटी - 2 ( जल व चंदन चढ़ाने हेतु । ) ५ . धूपायन - 1 ( अग्नि में धूप चढ़ाने हेतु ) ठोना - 1 ( आहान , स्थापना , सन्निहिता आहान विसर्जन के प्रतीक पुष्प चढाने । ६ . रकेबी - 1 ( नैवेद्य , फल , अर्घ्य आदि चढ़ाने हेतु । ) ७ .